दृष्टिकोण, मन और अस्तित्व: समर्पण की दृष्टि से

 

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दृष्टिकोण, मन और अस्तित्व: समर्पण की दृष्टि से

हमारे जीवन का अनुभव इस पर निर्भर करता है कि हम उसे कैसे देखते हैं। दृष्टिकोण वह लेंस है जिससे मन वास्तविकता को समझता है। और मन वह कैनवास है जिस पर हमारा सम्पूर्ण जीवन चित्रित होता है। हिमालयीन समर्पण ध्यानयोग में यह त्रिकोण—दृष्टिकोण, मन और अस्तित्व—केवल दर्शन नहीं, बल्कि गहन साधना का विषय है।

स्वामी शिवकृपानंदजी सिखाते हैं कि मन शत्रु नहीं, बल्कि एक उपकरण है। लेकिन जब दृष्टिकोण अहंकार, भय या संस्कारों से ढका होता है, तो मन चंचल, प्रतिक्रियाशील और खंडित हो जाता है। हम जीवन को विकृत चश्मे से देखने लगते हैं—माया को सत्य समझते हैं, प्रतिक्रिया को विवेक मान बैठते हैं।

अस्तित्व स्वयं में शुद्ध, मौन और पूर्ण है। यह सबका आधार है। लेकिन हमारा दृष्टिकोण हमें इस पूर्णता से अलग कर देता है। हम विभाजन करते हैं, लेबल लगाते हैं, निर्णय करते हैं। हम आत्मा की उपस्थिति में नहीं, बल्कि मन की कल्पनाओं में जीते हैं।

समर्पण ध्यानयोग में यात्रा भीतर की ओर होती है। ध्यान मन को नियंत्रित करने की नहीं, बल्कि गुरु तत्व को समर्पित होने की प्रक्रिया है। जब हम मौन में बैठते हैं, तो दृष्टिकोण कोमल होता है, मन शांत होता है, और अस्तित्व स्वयं को प्रकट करता है।

दृष्टिकोण स्थिर नहीं होता—यह विकसित होता है। नियमित ध्यान से चित्त शुद्ध होता है। हम जीवन को भय या इच्छा की दृष्टि से नहीं, बल्कि जागरूकता की दृष्टि से देखने लगते हैं। चुनौती शिक्षा बन जाती है। विलंब दिव्य समय बन जाता है। अजनबी आत्मा का प्रतिबिंब बन जाता है।

जब मन गुरु तत्व से जुड़ता है, तो वह आत्मा का सेवक बन जाता है। वह हावी नहीं होता—वह सुनता है। वह प्रतिक्रिया नहीं करता—उत्तर देता है। यह परिवर्तन बौद्धिक नहीं, ऊर्जा का होता है। यह मौन में घटता है।

स्वामीजी कहते हैं कि दृष्टिकोण भीतर और बाहर की दुनिया के बीच सेतु है। जब दृष्टिकोण शुद्ध होता है, तो मन स्पष्ट होता है। और जब मन स्पष्ट होता है, तो अस्तित्व जैसा है वैसा ही अनुभव होता है—बिना विकृति, बिना विभाजन।

इसीलिए समर्पण ध्यानयोग में समर्पण को केंद्र में रखा गया है। यह संसार को त्यागने की नहीं, बल्कि उसे विकृत करने वाले चश्मे को त्यागने की साधना है। जब हम समर्पण करते हैं, तो स्वयं को खोते नहीं—बल्कि अपने सच्चे स्वरूप को पाते हैं।

अस्तित्व को समझा नहीं जा सकता—उसे जिया जा सकता है। और यह तभी संभव है जब दृष्टिकोण सत्य से जुड़ा हो और मन मौन में स्थिर हो।

तो रुकिए। बैठिए। समर्पण कीजिए। दृष्टिकोण को उपस्थिति में विलीन होने दीजिए। मन को गुरु की कृपा में विश्राम करने दीजिए। अस्तित्व को प्रकट होने दीजिए—विचार के रूप में नहीं, बल्कि जीवंत अनुभव के रूप में।

उस मौन में आपको उत्तर नहीं, बल्कि जागरूकता मिलेगी। नियंत्रण नहीं, बल्कि जुड़ाव। अलगाव नहीं, बल्कि एकता।

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