आनंद का स्रोत: मौन में छिपा उल्लास

 

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आनंद का स्रोत: मौन में छिपा उल्लास

आनंद कोई प्राप्त की जाने वाली वस्तु नहीं है—यह तो भीतर से प्रकट होने वाली अवस्था है। तनाव, महत्वाकांक्षा और पहचान की परतों के नीचे एक स्वाभाविक उल्लास छिपा होता है, जो बाहरी परिस्थितियों से अछूता होता है। हिमालयी समर्पण ध्यानयोग, जिसे पूज्य सद्गुरु शिवकृपानंद स्वामीजी द्वारा सिखाया गया है, साधकों को इस आंतरिक आनंद के स्रोत की ओर कोमलता से ले जाता है, यह स्मरण कराते हुए कि आनंद कोई पुरस्कार नहीं, बल्कि हमारा स्वरूप है।

हम अपने दैनिक जीवन में अक्सर उपलब्धियों, संबंधों और वस्तुओं के माध्यम से सुख की खोज करते हैं। ये क्षणिक प्रसन्नता दे सकते हैं, पर स्थायी आनंद नहीं देते। इसका कारण स्पष्ट है—ये सब बाहरी हैं। सच्चा आनंद भीतर से उत्पन्न होता है, उस स्थान से जो मौन, स्थिर और सार्वभौमिक चेतना से जुड़ा होता है। समर्पण ध्यानयोग सिखाता है कि यह जुड़ाव बनाया नहीं जाता—यह स्मरण किया जाता है।

जब हम समर्पण की भावना से ध्यान में बैठते हैं, तो वे परतें हटने लगती हैं जो हमारे स्वाभाविक आनंद को ढँकती हैं। मन, जो सामान्यतः चंचल और प्रतिक्रियाशील होता है, शांत होने लगता है। विचारों की पकड़ ढीली पड़ती है, और एक सूक्ष्म हल्कापन प्रकट होता है। यह हल्कापन बनाया नहीं जाता—यह तो पहले से ही था, केवल शोर के नीचे छिपा हुआ।

पूज्य स्वामीजी कहते हैं कि आनंद कोई भावना नहीं, बल्कि एक तरंग है। यह आत्मा की वह तरंग है जो गुरु की ऊर्जा से जुड़ने पर प्रकट होती है। गुरु की उपस्थिति में यह तरंग सजीव हो जाती है। हम भीतर से ऊर्जावान महसूस करते हैं, क्योंकि कुछ बाहर नहीं, बल्कि भीतर जागृत होता है।

उल्लास इसी आंतरिक आनंद का प्रवाह है। यह न तो ऊँचा स्वर है, न कोई नाटकीयता—यह तो एक प्रकाश है। यह हमारी आँखों, शब्दों और कर्मों से झलकता है। यह वह मुस्कान है जिसे कारण की आवश्यकता नहीं, वह करुणा है जो सहज रूप से बहती है, वह स्पष्टता है जो बिना विश्लेषण के आती है। समर्पण ध्यानयोग में यह उल्लास पैदा नहीं किया जाता—यह तो स्वतः प्रकट होता है।

ध्यान इसका माध्यम है। किसी विधि के रूप में नहीं, बल्कि समर्पण के रूप में। जब हम मौन में बैठते हैं, तो आनंद पाने की कोशिश नहीं करते—बल्कि उस आनंद के प्रति जागरूक हो जाते हैं जो पहले से ही उपस्थित है। श्वास कोमल हो जाती है, शरीर शिथिल होता है, और हृदय खुलता है। इस खुलेपन में आनंद सहज रूप से बहता है।

यह आंतरिक आनंद मनोदशा, मौसम या सफलता पर निर्भर नहीं होता। यह एकांत में भी वही रहता है, और समूह में भी। यह सरलता में भी होता है, और जटिलता में भी। यह "करने" का नहीं, "होने" का आनंद है। और एक बार छू लिया जाए, तो यह जीवन के हर पहलू को रंगने लगता है।

समर्पण ध्यानयोग वह मार्ग देता है जहाँ आनंद कोई लक्ष्य नहीं, बल्कि साथी होता है। वह हमारे साथ चलता है, हमारे पास बैठता है, और हमारे भीतर विश्राम करता है। यह आत्मा का मौन गीत है, जो तब सुनाई देता है जब मन शांत होता है।

इस आनंद को खोजने के लिए जीवन बदलने की आवश्यकता नहीं—केवल ध्यान बदलने की आवश्यकता है। भीतर की ओर मुड़िए। बैठिए। समर्पण कीजिए। और उस मौनता में, आनंद का स्रोत स्वयं को प्रकट करता है—नया नहीं, बल्कि पुरातन, परिचित और सदा से हमारा।

यदि आप चाहें तो मैं इस विषय को किसी विशेष संदर्भ या शैली में और विस्तार से भी प्रस्तुत कर सकता हूँ—बस कहिए।

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