पदार्थ और चेतना का नृत्य
पदार्थ और चेतना का नृत्य
जीवन पदार्थ और चेतना के निरंतर संवाद का नाम है—एक दिव्य नृत्य जिसे स्वयं ब्रह्मांड ने रचा है। इस शाश्वत ताल में, पदार्थ वह मंच है जिसे हम देख सकते हैं—शरीर, धरती, संबंध, हमारे चारों ओर की दुनिया—और चेतना वह मौन साक्षी है, आत्मा है, जो सब देखती है, अनुभव करती है। जब हम इस पवित्र नृत्य को देखना शुरू करते हैं, तो जीवन संघर्ष नहीं, एक सुंदर प्रवाह बन जाता है—जागरूकता और समर्पण से भरा हुआ।
भौतिक संसार में सब कुछ अस्थायी है। हमारा शरीर बदलता है, संबंध बदलते हैं, वस्तुएं आती-जाती हैं, भावनाएं लहरों की तरह उठती और गिरती हैं। यही पदार्थ का स्वभाव है—परिवर्तनशील, नश्वर और समय के अधीन। परंतु इस बदलते संसार के भीतर कुछ अचल और शाश्वत है—हमारी चेतना। न वह बूढ़ी होती है, न नष्ट होती है; वह केवल होती है। आध्यात्मिक अभ्यास से हम यह अनुभव करते हैं कि यद्यपि हम भौतिक संसार में रहते हैं, पर हम उससे सीमित नहीं हैं।
पदार्थ हमें विकास का मंच देता है। वह वह घर्षण लाता है जिससे चेतना तीव्र होती है। सुख-दुख, लाभ-हानि—ये सभी अनुभव हमें आत्म-निरीक्षण की ओर प्रेरित करते हैं। परंतु जब तक हम स्वयं को केवल पदार्थ से जोड़ते हैं, तब तक हम जीवन से जूझते रहते हैं। चेतना पदार्थ को नकारती नहीं, वह उसे प्रकाशित करती है। हिमालयन समर्पण ध्यानयोग और शिवकृपानंद स्वामीजी की शिक्षा यही कहती है कि सच्ची आध्यात्मिकता संसार से भागना नहीं, उसमें सजग होकर जीना है।
स्वामीजी सुंदर रूप से कहते हैं कि पदार्थ और चेतना शत्रु नहीं, सहचर हैं। पदार्थ रूप देता है, चेतना अर्थ। दोनों मिलकर जीवन बनाते हैं। ध्यान के माध्यम से जब हम शरीर और मन से अलग होकर साक्षी बनते हैं, तब पदार्थ और चेतना एक लय में आ जाते हैं। शरीर आत्मा का यंत्र बन जाता है, अहं का बोझ नहीं। संसार एक युद्ध नहीं, एक विद्यालय बन जाता है।
यह नृत्य तब सुंदर होता है जब हम समर्पण सीखते हैं। चेतना आगे चलती है, पदार्थ उसका अनुसरण करता है। जब हम भीतर की शांति से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, न कि भय या इच्छा से, तब हर कार्य पवित्र हो जाता है। खाना, चलना, काम करना, विश्राम करना—हर क्रिया उस दिव्यता की लय बन जाती है। आध्यात्मिक और भौतिक का भेद मिट जाता है—सब एक हो जाता है।
समर्पण ध्यानयोग हमें बिना निर्णय के देखने की कला सिखाता है। यह साक्षीभाव हमें पदार्थ की पकड़ से धीरे-धीरे मुक्त करता है। हम जीवन को एक नाटक की तरह देखने लगते हैं, जिसमें हम अभिनेता भी हैं और दर्शक भी। हम पूरी तरह से भाग लेते हैं, पर बंधते नहीं। यही इस नृत्य का सार है—पूर्ण सहभागिता के साथ आंतरिक स्वतंत्रता। नर्तक नृत्य में होता है, पर उसमें खोता नहीं।
जब पदार्थ और चेतना एक लय में चलते हैं, जीवन संगीत बन जाता है। कोई विरोध नहीं, केवल समरसता होती है। यह संसार से पलायन नहीं, अपितु उसमें सच्चा सामर्थ्य है। हम मौन यात्री बन जाते हैं—सांसारिक संसार में प्रवाहित होते हुए भी आत्मिक रूप से स्थिर। स्वामीजी कहते हैं, “संसार में रहो, पर संसार के मत बनो।” यही नृत्य की कला है।
इस पवित्र एकता में पीड़ा ज्ञान बन जाती है, गति ध्यान बन जाती है। हम हर रूप में ईश्वर को देखने लगते हैं—पत्थर से आकाश तक। चेतना पदार्थ के माध्यम से नृत्य करती है, उसकी सुंदरता, उद्देश्य और एकता को प्रकट करती है। यही है जीवित होने की सच्ची खुशी—टुकड़ों में नहीं, बल्कि उस ब्रह्मांडीय नृत्य में जहाँ आत्मा और पदार्थ एक लय में झूमते हैं।
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