संपूर्ण बनने की यात्रा
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संपूर्ण बनने की यात्रा
पूर्णता की यात्रा कोई नई अवस्था को प्राप्त करने की प्रक्रिया नहीं है—यह स्वयं को पुनः स्मरण करने की यात्रा है। संसार के कोलाहल में हम अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाते हैं। जिम्मेदारियों, अपेक्षाओं और भूमिकाओं में उलझकर हम भीतर की उस पूर्णता से कट जाते हैं, जो सदा हमारे साथ थी। हिमालयन समर्पण ध्यानयोग और सद्गुरु शिवकृपानंद स्वामीजी की दिव्य शिक्षाएं हमें इस भूली हुई पूर्णता की ओर पुनः ले जाती हैं।
पूर्णता हमारी स्वाभाविक स्थिति है। आत्मा पहले से ही संपूर्ण है, उसमें कुछ भी कमी नहीं है। परंतु जब हम मन, अहंकार, शरीर और बाह्य संसार से स्वयं को जोड़ते हैं, तो अलगाव और अधूरेपन का अनुभव होता है। हम बाहर उस चीज को खोजते हैं जो भीतर ही मौजूद है। यही दुःख का मूल कारण है—अपनी पहचान में भ्रम। स्वामीजी समझाते हैं कि वास्तविक यात्रा बाहर नहीं, भीतर की ओर है। मौन, समर्पण और गहरी अंतर्संपर्क में हम अलगाव के भ्रम को मिटाना आरंभ करते हैं।
समर्पण ध्यानयोग के माध्यम से हमें केवल मौन में बैठना सिखाया जाता है, बिना किसी इच्छा या प्रयास के। यह “करने” की साधना नहीं, “होने” की साधना है। जब हम अपने विचारों, पहचानों और यहां तक कि आध्यात्मिक आकांक्षाओं को भी गुरु तत्व के चरणों में समर्पित करते हैं, तब हम धीरे-धीरे अपने प्राकृतिक पूर्ण स्वरूप की ओर लौटने लगते हैं। ध्यान एक दर्पण बन जाता है, जिसमें बिखरे हुए आत्म-अंश फिर से जुड़ने लगते हैं। चेतना के टुकड़े गुरु ऊर्जा की उपस्थिति में एक हो जाते हैं।
स्वामीजी कहते हैं, “आप अधूरे नहीं हैं; आप अपनी पूर्णता से अनभिज्ञ हैं।” यह सरल पर अत्यंत गहन वाक्य हमारे साधना दृष्टिकोण को पूरी तरह बदल देता है। अब हम प्रयास नहीं करते, हम केवल देखते हैं। अनुभवों के पीछे भागने के स्थान पर हम मौन हो जाते हैं। ज्ञान इकट्ठा करने के स्थान पर हम कृपा के प्रति उपलब्ध हो जाते हैं। पूर्णता की यात्रा कुछ जोड़ने की नहीं, बल्कि जो हमारा नहीं है, उसे छोड़ने की प्रक्रिया है।
हिमालय परंपरा में पूर्णता का अर्थ बाह्य सिद्धि नहीं, अपितु आंतरिक संतुलन होता है। एक संपूर्ण व्यक्ति भी भावनाओं और कठिनाइयों का अनुभव करता है, परंतु वह उनसे विचलित नहीं होता। वह आत्मा में केंद्रित रहता है। यह केंद्र समर्पण ध्यान की नियमित साधना, गुरु की ऊर्जा के प्रति समर्पण, और वर्तमान क्षण में जीने से विकसित होता है।
गुरु केवल ज्ञानदाता नहीं होते, वे एक जीवंत उपस्थिति होते हैं जो हमारे भीतर की पूर्णता को जागृत करते हैं। जब हम गुरु तत्व से जुड़ते हैं, तब हम दिव्य संतुलन से कंपन करने लगते हैं। हम स्मरण करते हैं कि हम न तो मन हैं, न भावनाएँ, न नाम, न अतीत—हम केवल शुद्ध चेतना हैं। जब यह स्मृति गहरी होती है, तब एक शांत आनंद उत्पन्न होता है। कोई जल्दबाज़ी नहीं, कोई भय नहीं, कोई कमी नहीं—बस एक सच्चिदानंद की अनुभूति।
यही है भीतर की यात्रा का फल। यह नाटकीय नहीं होता, न ही ज़ोर से प्रकट होता है। यह मौन और स्वाभाविक होता है। जैसे फूल खामोशी से खिलता है, जैसे सूर्य प्रयास के बिना उदित होता है—वैसे ही हमारी पूर्णता भी समर्पण में स्वयं प्रकट होती है। जितना अधिक हम छोड़ते हैं, उतना ही पाते हैं कि जिसे हम खोज रहे थे, वह सदैव हमारे भीतर ही था।
इस पावन मार्ग में पूर्णता कोई मंज़िल नहीं, आत्मा की प्रकृति है। हम पूर्ण नहीं बनते—हम केवल उस पूर्णता को जागृत करते हैं जो हम सदा से थे। और इसी जागृति में शांति, आनंद और गहन तृप्ति की अनुभूति होती है—क्योंकि कुछ बाहर नहीं बदला, बल्कि भीतर कुछ शाश्वत स्मरण हुआ।
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