उथल-पुथल भरे समय में आंतरिक स्थिरता

 

फोटो का श्रेय: Quotefancy

उथल-पुथल भरे समय में आंतरिक स्थिरता

जीवन की निरंतर बदलती लहरों में, जहाँ अनिश्चितता, अशांति और संघर्ष चारों ओर व्याप्त हैं, वहाँ सबसे अमूल्य खजाना है—भीतर की शांति। जब बाहरी दुनिया भागदौड़ में उलझी रहती है और परिस्थितियाँ पल-पल बदलती हैं, तब एकमात्र सच्चा आश्रय हमारे भीतर होता है। हिमालयन समर्पण ध्यानयोग और सद्गुरु शिवकृपानंद स्वामीजी की कालातीत शिक्षाएं हमें उस शांत केंद्र की ओर ले जाती हैं—जो हमारे हृदय में स्थित है और बाहरी तूफानों से अछूता है।

स्वामीजी बार-बार स्मरण कराते हैं कि बाहरी दुनिया सदा गति में रहेगी। जैसे तेज़ हवाएं झील की सतह को हिला देती हैं, वैसे ही घटनाएँ, भावनाएँ और संबंध हमारे मन की सतह को विचलित कर देते हैं। परंतु उस सतह के नीचे गहराई में एक शांत, स्पष्ट और स्थिर जलराशि होती है। वही हमारी सच्ची प्रकृति है। जब हम केवल सतह पर जीते हैं, तो हर लहर हमें उछालती है। परंतु जब हम ध्यान के माध्यम से भीतर उतरते हैं, तो एक ऐसी शांति का अनुभव होता है जिसे कोई बाहरी ताकत डिगा नहीं सकती।

समर्पण ध्यानयोग एक अत्यंत सरल परंतु गहन मार्ग है जो हमें इस आंतरिक मौन में ले जाता है। जब हम अपेक्षाओं और प्रयासों को छोड़कर समर्पण की अवस्था में बैठते हैं, तो गुरु तत्व की ऊर्जा हमें भीतर ले जाती है। विचारों को दबाने या बेचैनी से लड़ने की आवश्यकता नहीं होती। हम केवल देखते हैं, स्वीकारते हैं, और सब कुछ गुरु के चरणों में अर्पित करते हैं। धीरे-धीरे शोर की परतें हटने लगती हैं और शुद्ध शांति प्रकट होती है—जैसे तूफान के बाद का मौन।

स्वामीजी समझाते हैं कि यह शांति निष्क्रियता नहीं है, यह पलायन नहीं है। यह वह जागरूकता है जो सब कुछ देखती है, पर उसमें उलझती नहीं। जब कठिन समय आता है और भय या चिंता हमें केंद्र से हटाने का प्रयास करते हैं, तब यही आंतरिक मौन हमारा आधार बनता है। यह हमें प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि संतुलन से कार्य करना सिखाता है—और आत्मा में स्थित रहने की शक्ति देता है।

यह स्थिरता पाने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता, बल्कि नियंत्रण को छोड़ना होता है। जितना अधिक हम अपने अहं को समर्पित करते हैं, उतना ही अधिक हम दिव्य उपस्थिति में विश्राम करते हैं। समर्पण का अर्थ है—'मैं नहीं, तू ही'। जब हम गुरु तत्व में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाते हैं, तो हम एक उच्च चेतना के लिए उपलब्ध हो जाते हैं जो मौन में हमारी रक्षा करती है, हमारा मार्गदर्शन करती है।

गुरु की उपस्थिति में, हमारे तूफान भी शिक्षक बन जाते हैं। कठिन क्षण दंड नहीं हैं, बल्कि आत्म-जागरूकता को गहराने के अवसर हैं। जब हम ध्यान में बैठते हैं और मन की प्रतिक्रियाओं को देखते हैं, तब हम अपने भीतर के भय, मोह और नियंत्रण की प्रवृत्तियों को पहचानने लगते हैं। और इसी पहचान में हमें मुक्ति मिलने लगती है। गुरु की कृपा इन प्रवृत्तियों को बलपूर्वक नहीं, प्रेमपूर्वक मिटा देती है।

संभव है कि संसार शांत न हो, पर हम हो सकते हैं। यही है समर्पण ध्यानयोग का वचन। यह हमें जीवन बदलने को नहीं कहता, बस दृष्टिकोण बदलने को कहता है। यह हमें भीतर वह स्थान देता है जो सदा सुरक्षित, सदा मौन और सदा पवित्र है। वहाँ हम संसार के शिकार नहीं, साक्षी बन जाते हैं। हम बिखरे नहीं रहते, बल्कि आत्मा में केंद्रित हो जाते हैं।

जैसे स्वामीजी कहते हैं, “आकाश की तरह बनो—विशाल, मौन और गुजरते बादलों से अछूते।” बादल आते-जाते रहेंगे, पर आकाश अचल रहता है। वैसे ही, हम भी गुरु की उपस्थिति में उस मौन केंद्र में स्थित रहकर जीवन के तूफानों से शांति के साथ गुजर सकते हैं।


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ध्यान - मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख द्वार

गुरु कृपा जीवन का स्नेहक है

पुराने संस्कारों को छोड़ना