स्वयं में स्थिर रहना: हर क्षण की साधना
स्वयं में स्थिर रहना: हर क्षण की साधना

Photo Credit: Dada Bhagwan

स्वयं में स्थिर रहना अर्थात आत्मा से जीना—बाहरी सतह से नहीं। हिमालयीन समर्पण ध्यानयोग की दृष्टि में यह स्थिरता केवल ध्यान के समय की अवस्था नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक शैली है—हर क्षण आत्मा से जुड़कर जीना।
अधिकतर लोग ध्यान में कुछ क्षणों की शांति अनुभव करते हैं, लेकिन जैसे ही वे दैनिक जीवन में लौटते हैं, मन उन्हें खींच लेता है। विचार, भावनाएँ और परिस्थितियाँ उन्हें उनके केंद्र से दूर कर देती हैं। चुनौती केवल आत्मा को छूने की नहीं है—बल्कि उसमें 24x7 स्थिर रहने की है।
स्वामी शिवकृपानंदजी सिखाते हैं कि आत्मा सदा उपस्थित है—मौन, प्रकाशमयी और संसार की हलचल से अछूती। इसे बनाना नहीं होता—इसे केवल स्मरण करना होता है। और इस स्मरण की कुंजी है समर्पण।
समर्पण ध्यानयोग में हम मन को नियंत्रित नहीं करते, बल्कि मौन में बैठकर गुरु तत्व को समर्पित होते हैं। यह समर्पण सतगुरु की ऊर्जा को हमारे भीतर प्रवाहित करता है, सूक्ष्म शरीर को शुद्ध करता है और आत्मा को जागृत करता है। समय के साथ यह संबंध गहराता है, और हम हर क्षण में आत्मा की उपस्थिति को अनुभव करने लगते हैं।
स्वयं में स्थिर रहना जागरूकता से जीना है। प्रतिक्रिया नहीं, उत्तर देना। अवलोकन करना, नहीं उलझना। प्रवाह में रहना, नहीं विरोध करना। यह जीवन से दूर जाने की बात नहीं—बल्कि जीवन में स्थिरता और स्पष्टता से जुड़ने की कला है।
यह स्थिरता केवल ध्यान तक सीमित नहीं है। यह हमारे बोलने, चलने, कार्य करने और संबंधों में भी प्रकट होती है। जब हम केंद्रित होते हैं, तो साधारण कार्य भी पवित्र बन जाते हैं। एक सामान्य वार्तालाप शांति बाँटने का अवसर बन जाता है। एक मौन क्षण कृपा का द्वार बन जाता है।
स्वामीजी कहते हैं कि आत्मा आकाश की तरह है—विस्तृत, खुला और बदलते बादलों से अप्रभावित। विचार और भावनाएँ बादलों की तरह हैं—आते हैं और जाते हैं। लेकिन आकाश स्थिर रहता है। जब हम स्वयं को आकाश से जोड़ते हैं, बादलों से नहीं, तो हम स्थिर रहते हैं।
हर क्षण में स्थिर रहने के लिए दिनभर जागरूकता का अभ्यास आवश्यक है। कुछ क्षणों की श्वास की सजगता, एक मौन प्रार्थना, या कृतज्ञता का भाव हमें पुनः जोड़ देता है। अभ्यास से यह सहज हो जाता है।
अंततः, स्वयं में स्थिर रहना कोई लक्ष्य नहीं—यह हमारी वास्तविक प्रकृति है। यात्रा कहीं पहुँचने की नहीं—बल्कि भीतर लौटने की है। गुरु तत्व की कृपा और समर्पण की साधना से हम आत्मा से जीना शुरू करते हैं—केवल ध्यान में नहीं, बल्कि हर श्वास में।
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