ठहराव क्यों ज़रूरी है

 

फोटो क्रेडिट: फेस्बूक 

ठहराव क्यों ज़रूरी है

हमारे इस व्यस्त जीवन में, जहाँ हमारी मान्यताएँ, चुनाव और स्वयं की पहचान बाहरी दबावों और पुरानी आदतों से प्रभावित होती हैं, वहाँ अपने आप से जुड़ाव खोना बहुत आसान हो जाता है। लेकिन सुंदर बात यह है कि सच्चा और स्थायी परिवर्तन हमेशा भीतर से शुरू होता है—जागरूकता के माध्यम से।

ठहराव केवल गतिविधियों में विराम नहीं है। यह एक पवित्र स्थान है जहाँ मौन बोलने लगता है, जहाँ जागरूकता उभरती है और हम उस आंतरिक आवाज़ को सुनना शुरू करते हैं जो दिनचर्या के शोर में दब जाती है। स्वामी शिवकृपानंदजी की शिक्षाओं और हिमालयीन समर्पण ध्यानयोग की साधना में यह ठहराव—ध्यान का रूप ले लेता है।

ध्यान के माध्यम से हम केवल शरीर को ही नहीं, बल्कि मन और भावनाओं को भी ठहरने देते हैं। विचारों की लगातार आवाज़ मंद होती है और चित्त शांत होने लगता है। यह वही क्षण होता है जब हम अपने भीतरी संसार को देखना शुरू करते हैं। भावनाएँ, विचार, बेचैनी—सब उभरते हैं, लेकिन हम उनमें उलझते नहीं हैं, सिर्फ देखते हैं। यही देखना ही परिवर्तन का बीज है।

स्वामीजी हमें बार-बार याद दिलाते हैं कि हमारा सच्चा स्वरूप—जो शाश्वत और अडोल है—हमेशा हमारे भीतर विद्यमान है। लेकिन जब हम निरंतर दौड़ते रहते हैं, प्रतिक्रिया करते रहते हैं, तब हम उससे कट जाते हैं। ठहराव हमें उसी आत्मा से जोड़ने का अवसर देता है। यह याद दिलाता है कि हम केवल शरीर, मन या भावना नहीं हैं—हम उनसे कहीं अधिक गहरे हैं।

ठहराव कोई विलासिता नहीं, बल्कि आवश्यकता है। यह विचारों के बीच की साँस है, शब्दों के बीच की शांति है और वह स्थान है जहाँ चेतना विस्तार पाती है। इसी जागरूकता में ही चित्त का उपचार आरंभ होता है। हम अपने व्यवहारों को स्पष्ट रूप से देखने लगते हैं और समझ पाते हैं कि कितनी बातें आदतों या उधार लिए हुए विश्वासों से संचालित हो रही हैं।

जब हम ठहरते हैं, तब हम गुरु तत्व से गहराई से जुड़ते हैं। स्वामीजी जैसे सच्चे सद्गुरु से प्राप्त यह सूक्ष्म मार्गदर्शन तभी हमारे भीतर उतरता है जब हम ग्रहणशील होते हैं। जितना गहरा ठहराव, उतनी ही स्पष्ट दिशा मिलती है।

ठहराव हमें जीवन की सच्ची सुंदरता का अनुभव भी कराता है। एक फूल की खुशबू, एक मुस्कान की मधुरता, साँसों का चमत्कार—ये सब तभी दिखाई देते हैं जब हम रुकते हैं और उपस्थित होते हैं। ठहराव हमें वर्तमान में जीना सिखाता है, और वर्तमान ही सबसे पवित्र समय है।

स्वामी शिवकृपानंदजी की कृपा और समर्पण ध्यानयोग की साधना हमें ठहरने का उपहार देती है—जीवन से भागने के लिए नहीं, बल्कि उसके हृदय में उतरने के लिए। जब हम रुकते हैं, तब हम स्वयं से जुड़ते हैं और उसी से सब कुछ बदलने लगता है—शांत, सहज और सुंदर रूप में।


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