ध्यान से उत्पन्न होने वाली संतुष्टि
ध्यान से उत्पन्न होने वाली संतुष्टि
ध्यान से उत्पन्न होने वाली संतुष्टि एक स्थायी और गहराई से जुड़ी अनुभूति है, जो बाहरी परिस्थितियों या उपलब्धियों पर निर्भर नहीं होती। यह वह शांत अनुभव है जो तब होता है जब मन की चंचलता शांत होती है और आत्मा अपने स्रोत से जुड़ जाती है। हिमालयीय समर्पण ध्यानयोग, जिसे सद्गुरु शिवकृपानंद स्वामीजी ने इस युग के साधकों को प्रदान किया है, एक ऐसा मार्ग है जो साधक को उसकी भीतरी यात्रा में सहारा देता है और आत्मिक संतुलन की ओर ले जाता है।
मनुष्य हमेशा से ही सुख और संतोष की खोज में रहा है। यह खोज हमें संसार के हर कोने में ले जाती है – रिश्तों, संपत्ति, उपलब्धियों और मान-सम्मान की ओर। लेकिन यह खोज अंततः अधूरी ही रह जाती है जब तक कि हम भीतर की ओर नहीं मुड़ते। स्वामीजी की शिक्षाओं के अनुसार, सच्ची संतुष्टि तब आती है जब मन मौन होता है और आत्मा की चेतना प्रकट होती है। ध्यान वह साधन है जो इस मौन को साधता है।
ध्यान के माध्यम से साधक अपने भीतर की वास्तविकताओं का साक्षात्कार करता है। यह केवल एक अभ्यास नहीं है, यह एक जीवन जीने की शैली है। जैसे-जैसे साधक नियमित ध्यान में बैठता है, वह अपने विचारों, भावनाओं और कर्मों के प्रति सजग होने लगता है। यह सजगता ही संतोष की नींव है। जब हम जीवन को प्रतिक्रिया की बजाय स्वीकार और जागरूकता से जीने लगते हैं, तो भीतर से एक गहरा संतोष प्रकट होता है।
हिमालयीय समर्पण ध्यानयोग की खूबी यह है कि यह किसी विशेष धर्म या पंथ पर आधारित नहीं है, बल्कि यह आत्मा से आत्मा की सीधी यात्रा है। स्वामीजी कहते हैं कि ध्यान वह माध्यम है जिससे हम अपने भीतर बैठे परमात्मा से जुड़ सकते हैं। यह जुड़ाव ही वह अवस्था है जहाँ सभी प्रश्न शांत हो जाते हैं और आत्मा विश्राम पाती है।
ध्यान में बैठते समय, हम अपने अस्तित्व के पारदर्शी रूप को अनुभव करने लगते हैं। हमारी इच्छाएँ, अपेक्षाएँ और दुख धीरे-धीरे विलीन होने लगते हैं। जब मन अधिक नहीं चाहता, और जो है उसे ही पर्याप्त मानने लगता है, तब भीतर संतोष की अनुभूति स्वतः प्रकट होती है। यह स्थिति किसी बाहरी वस्तु से नहीं आती, बल्कि हमारे भीतर के शुद्ध चेतना क्षेत्र से उत्पन्न होती है।
स्वामीजी का यह भी कहना है कि जब साधक ध्यान के माध्यम से अपने भीतर की यात्रा करता है, तब उसे अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव होता है – वह स्वरूप जो न तो समय से बंधा है और न ही किसी परिस्थिति से। यही अनुभव अंततः उस स्थायी संतुष्टि की ओर ले जाता है जिसकी तलाश हर आत्मा को होती है।
जब ध्यान जीवन का हिस्सा बन जाता है, तब संतोष कोई लक्ष्य नहीं, बल्कि जीवन की स्वाभाविक स्थिति बन जाती है। यह वह स्थिति है जहाँ साधक किसी भी परिस्थिति में भीतर की शांति को खोता नहीं, क्योंकि वह जानता है कि उसकी वास्तविकता शरीर या विचार नहीं, बल्कि शुद्ध चेतना है।
ध्यान संतोष की चाबी है, और हिमालयीय समर्पण ध्यानयोग वह मार्ग है जो हर साधक को इस चाबी तक पहुँचने में सहायक होता है। सद्गुरु शिवकृपानंद स्वामीजी की करुणामयी दृष्टि और उनके माध्यम से प्रवाहित ऊर्जा इस मार्ग को सहज बनाते हैं। इसीलिए जब साधक ध्यान के अभ्यास में नियमित होता है, तब वह अनुभव करता है कि उसे बाहर कुछ पाने की आवश्यकता नहीं है – क्योंकि भीतर सब कुछ पहले से ही उपलब्ध है। यही सच्चा संतोष है।
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