असंतुलित दुनिया में संतुलन बनाए रखना
असंतुलित दुनिया में संतुलन बनाए रखना
आज की तेज़ और उलझनों से भरी दुनिया में, जहाँ ध्यान भटकाने वाले कारक अनगिनत हैं और अपेक्षाएँ लगातार बदलती रहती हैं, आंतरिक संतुलन बनाए रखना एक चुनौती के साथ-साथ एक आवश्यकता भी बन गया है। हम प्रतिदिन कई दिशाओं में खिंचते हैं – कर्तव्यों, संबंधों, भावनाओं और इच्छाओं से। अक्सर हम परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने भीतर के केंद्र से भटक जाते हैं, यह भूल जाते हैं कि सच्चा संतुलन बाहर से नहीं, भीतर से आता है। हिमालयीय समर्पण ध्यानयोग के मार्ग पर चलते हुए, स्वामी शिवकृपानंद जी हमें यही सिखाते हैं कि संतुलन बाहरी नियंत्रण से नहीं, बल्कि आंतरिक चेतना से प्राप्त होता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से संतुलन का अर्थ है अपने भीतर स्थित आत्मा में स्थित रहना – जीवन की ऊँच-नीच से अप्रभावित रहना, सुख-दुख, लाभ-हानि में स्थिर बने रहना। स्वामीजी की शिक्षाएँ हमें सिखाती हैं कि यह स्थिरता भावनाओं को दबाकर नहीं, बल्कि उन्हें सजगता से देखने से आती है। जब हम ध्यान में बैठते हैं, बिना किसी प्रयास के, केवल समर्पण के साथ, तब मन धीरे-धीरे शांत होता है। बाहरी दुनिया का शोर धीमा हो जाता है और हम अपने अस्तित्व की सरलता में लौट आते हैं। इसी मौन में संतुलन की सच्ची अनुभूति होती है – एक ऐसी स्थिति जहाँ कुछ भी अधूरा नहीं लगता, और वर्तमान क्षण पूर्ण प्रतीत होता है।
बाहरी दुनिया हमेशा असंतुलित रह सकती है – अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव, संबंधों में बदलाव, स्वास्थ्य की अनिश्चितता – लेकिन जब हम ध्यान के अभ्यास में स्थिर हो जाते हैं, तो हमारा आंतरिक संसार इन सभी से अप्रभावित रहता है। समर्पण ध्यानयोग जीवन से दूर हटने की बात नहीं करता, बल्कि यह सिखाता है कि संसार में रहते हुए अपने केंद्र को कैसे न खोएं। स्वामीजी कहते हैं कि ध्यान केवल एक अभ्यास नहीं, बल्कि जीने का एक तरीका है – जहाँ प्रत्येक श्वास एक प्रार्थना बन जाती है और प्रत्येक क्षण आत्मा से जुड़ने का अवसर।
आज की दुनिया हमें सिखाती है कि संतुलन समय का सही प्रबंधन है। लेकिन स्वामीजी की दृष्टि कहीं गहराई तक जाती है – वह कहते हैं कि सच्चा संतुलन तब आता है जब आत्मा अपने स्रोत से जुड़ी होती है। जब हम नियमित ध्यान करते हैं, तो हम पाते हैं कि बेचैनी, भ्रम और भावनात्मक उतार-चढ़ाव धीरे-धीरे कम होने लगते हैं। हम अधिक स्थिर, शांत और संतुलित अनुभव करते हैं, क्योंकि हम गुरु तत्व की ऊर्जा से जुड़ते हैं – एक ऐसी अडोल, शुद्ध ऊर्जा जो हमारे भीतर पहले से ही मौजूद है। इस उपस्थिति में हम स्वचालित प्रतिक्रिया की जगह सजग उत्तर देना सीखते हैं।
संतुलन में जीने का अर्थ यह नहीं कि हम पीड़ा या आनंद का अनुभव नहीं करते, बल्कि यह कि हम उनसे संचालित नहीं होते। यह एक स्वतंत्रता है जो भीतर की जागरूकता से आती है। स्वामीजी बार-बार हमें वर्तमान में जीने की प्रेरणा देते हैं, क्योंकि मानसिक असंतुलन प्रायः भूतकाल की पश्चाताप या भविष्य की चिंता से उपजता है। जब हम वर्तमान क्षण में लौटते हैं, तब हम अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त करते हैं। श्वास हमारा आधार बनती है और वर्तमान क्षण हमारा मार्गदर्शक।
संतुलन कोई स्थायी स्थिति नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है – एक ऐसी स्थिति जिसे हमें प्रतिदिन अभ्यास, धैर्य और सजगता से पुनः प्राप्त करना होता है। जैसे कोई पक्षी हिलते हुए डाल पर अपने पंखों को समायोजित करके संतुलन बनाए रखता है, वैसे ही हमें भी जीवन को नियंत्रित किए बिना, केवल सजग और लचीले रहकर समायोजित होना सीखना होता है। स्वामीजी द्वारा सिखाया गया ध्यान यही पवित्र समायोजन है – जो हमें प्रत्येक दिन हमारे केंद्र में वापस ले आता है, चाहे जीवन हमें कितना भी खींचे।
अंततः, एक असंतुलित दुनिया में संतुलन बनाए रखना परिपूर्णता नहीं, बल्कि उपस्थिति का अभ्यास है। यह याद दिलाना है कि हम कौन हैं – एक आत्मा, स्वतंत्र और प्रकाशमय, जो इस दुनिया के शोर से अछूती है। ध्यान और समर्पण के माध्यम से, हम उसी स्मृति में लौटते हैं और वहीं से जीना शुरू करते हैं। यही संतुलन का सच्चा आरंभ है – उस शांत, मौन केंद्र से जो हमारे भीतर पहले से ही विद्यमान है।
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