गहराई से संतुलन की अनुभूति

 

फोटो का श्रेय: पिनटेरेस्ट 

गहराई से संतुलन की अनुभूति

आज की तेज़ रफ्तार दुनिया में, जहाँ व्याकुलता और दबाव निरंतर बने रहते हैं, वहाँ भीतर से संतुलन की गहरी अनुभूति को जागृत करना पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गया है। सच्चा संतुलन केवल समय का प्रबंधन या जिम्मेदारियों को सँभालने की क्षमता नहीं है—यह आत्मा, मन और शरीर के भीतर एक गहन सामंजस्य की स्थिति है। हिमालयीय समर्पण ध्यानयोग और पूज्य शिवकृपानंद स्वामीजी की शिक्षाओं के माध्यम से यह आंतरिक संतुलन सहज ही संभव हो जाता है।

संतुलन की शुरुआत जागरूकता से होती है। हमारी अधिकतर असंतुलन की स्थिति हमारे अवचेतन में छिपी प्रतिक्रियाओं से उत्पन्न होती है—भूतकाल की पीड़ाएं, भविष्य का भय, और एक चंचल मन जो वर्तमान में ठहर नहीं पाता। स्वामीजी हमें याद दिलाते हैं कि समाधान “यहाँ और अभी” में है। वर्तमान क्षण में भूत का पश्चाताप और भविष्य की चिंता दोनों समाप्त हो सकते हैं। जब हम केवल कुछ पल के लिए भी वर्तमान में टिकते हैं, तो संतुलन का स्पर्श होता है।

ध्यान इस जागरूकता का द्वार है। समर्पण ध्यानयोग की साधना में हम सहजता और समर्पण के साथ अपने मन को देखना सीखते हैं। समय के साथ, जब विचारों की गति धीमी पड़ती है, तो भीतर से शांति प्रकट होती है। साँसें धीमी होती हैं, तन और मन शांत होते हैं, और भीतर से एक आनंद प्रकट होता है। यह शांति दुनिया से भागने की नहीं, बल्कि अपने सच्चे स्वरूप में लौटने की प्रक्रिया है।

स्वामीजी सिखाते हैं कि संतुलन का मार्ग सरलता का मार्ग है। आज की दुनिया में हम मानते हैं कि अधिक करने से ही अधिक मिल सकता है, परन्तु अध्यात्मिक संतुलन “करने” से नहीं, “होने” से आता है। मौन, एकांत और समर्पण में वह झलकता है। जब हम मानसिक बोझ को छोड़ते हैं, तब आत्मा का प्रकाश उभरता है।

संतुलन का अर्थ यह नहीं कि जीवन में संघर्ष या भावनाएँ नहीं आएँगी, बल्कि इसका अर्थ है कि हम उनके बीच में स्थिर रह सकें। जीवन में तूफ़ान आएंगे, लेकिन एक जाग्रत आत्मा उस तूफ़ान में भी स्थिर रह सकती है। नियमित ध्यान और सजग जीवनशैली से हम प्रतिक्रियाशील नहीं, बल्कि उत्तरदायी बनते हैं।

सच्चा संतुलन प्रकृति की लय से जुड़ाव में भी है। हमारा शरीर उन्हीं पंचमहाभूतों से बना है, जो इस धरती में हैं। स्वामीजी बताते हैं कि जब हम सूर्योदय के साथ जागते हैं, सात्विक भोजन करते हैं और पर्याप्त विश्राम लेते हैं, तो प्रकृति से जुड़ते हैं और भीतर का संतुलन सशक्त होता है।

संतुलन का सबसे सुंदर फल है—निर्विशेष आनंद की अनुभूति। यह वह आनंद है जो किसी उपलब्धि पर नहीं, बल्कि स्वयं के साथ जुड़ाव पर आधारित होता है। जब आंतरिक अशांति शांत हो जाती है, तो हृदय स्वतः खुलता है। हम छोटी बातों में भी सुंदरता देखने लगते हैं, बिना अपेक्षा के प्रेम करते हैं और कृतज्ञता से जीते हैं।

समर्पण ध्यानयोग और पूज्य स्वामीजी की करुणामयी शिक्षाएँ हमें यह संतुलन जगाने का मार्ग दिखाती हैं। यह कोई ऐसी चीज़ नहीं जिसे हमें बाहर खोजने जाना है—यह हमारे भीतर ही है, बस उसे पहचानने की आवश्यकता है। जब हम वहाँ से जीना शुरू करते हैं, तब जीवन बोझ नहीं, बल्कि एक दिव्य वरदान बन जाता है।


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